124
pages
Hindi
Ebooks
2022
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Publié par
Date de parution
30 juin 2022
Nombre de lectures
2
EAN13
9789354922343
Langue
Hindi
Publié par
Date de parution
30 juin 2022
EAN13
9789354922343
Langue
Hindi
पेंगुइन बुक्स
उसके वंशज
अनीस सलीम की प्रकाशित कृतियों में वैनिटी बॉक्स (2013 में बेस्ट फ़िक्शन के लिए द हिंद लिटरेरी प्राइज़ विजेता), द ब्लाइंड लेडीज़ डिसेंडेंट्स (2014 में बेस्ट फ़िक्शन के लिए रेमंड क्रॉसवर्ड बुक अवॉर्ड और केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2018 की विजेता), द स्मॉल टाउन सी (2017 में बेस्ट फ़िक्शन के लिए अट्टा गलाटा-बेंगलुरु लिटरेचर फेस्टिवल बुक प्राइज़ विजेता) और द ऑड बुक ऑफ बेबी नेम्स शामिल हैं। उनकी पुस्तकें कई भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं।
अनुवादक परिचय
मूलत: बिहार से ताल्लुक रखने वाली वर्षा रानी एक बहुभाषी स्वतंत्र पत्रकार, शोधकर्ली, लेखिका, अनुवादक, कवियित्री और छायाकार हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए और बौद्ध अध्ययन में एमफिल किया और भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी) नई दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा हासिल किया। वर्षा रानी ने जानकी देवी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
अनीस सलीम
उसके वंशज
अनुवाद : वर्षा रानी
विषय-सूची
आभार
किताब 1 जन्म
किताब 2 शादी
किताब 3 मुहब्बत
किताब 4 दिल के जख्म
किताब 5 शुरुआत
उस बुजुर्ग नेत्रहीन स्त्री और उसके वंशजों को
फॉलो पेंगुइन
कॉपीराइट
जावेद ख़ान को समर्पित
आभार
जिस किसी को भी मेरे गृहनगर का थोड़ा भी अंदाज़ होगा, वह देख सकता है कि इस किताब की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए मैंने किस तरीके से मेहनत करके इसके भूदृश्यों को पुनर्व्यवस्थित किया है। यह एक छोटा और ऊँघता हुआ शहर था और इसकी बोरियत से बचने के लिए मैंने लिखना और पढ़ना शुरू किया था। मेरे अंदर लेखन का बीजारोपण करने के लिए वर्कला को बहुत बहुत धन्यवाद । मैं उनकी उदारता, प्रेम और समर्थन के लिए इन व्यक्तियों का भी धन्यवाद ज्ञापन करना चाहता हूँ : अंबर साहिल चटर्जी, अहलावत गुंजन, दीप्ति आनंद और पेंगुइन का हर कोई अन्य व्यक्ति । मैं अपने एजेंट कनिष्क गुप्ता का भी आभारी हूँ। मैं अपने शहर के पुराने प्यारे दोस्त संदीप एम. दास के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ। मैं अपनी पत्नी शमीना अनीस के प्रति भी शुक्रगुज़ार हूँ और और ओमर अनीस के प्रति भी, जो मेरा गुप्त प्रशंसक है।
किताब 1 जन्म
पर यह सब तो बीत चुका है, डॉक्टर रोज़ ने कहा। दिमागी शांति तो तब मिलती है, जब आप बीती बातों पर परेशान होना छोड़ देते हैं।
अच्छा सिद्धांत है। लेकिन उदासी का इलाज करने के लिए जिसे पैसे दिए जा रहे हों, उस आदमी का जीवन के प्रति ऐसा घिसा-पिटा नज़रिया होगा, इसकी मुझे बिलकुल आशा नहीं थी। मैं उम्मीद कर रहा था, कि वह कोई ऐसी गूढ़ विवेकपूर्ण बात कहेंगे, जो पहले नहीं कही गई।
मैं कोई विद्वान नहीं, एक औसत योग्यता वाला छात्र भी नहीं, फिर भी उदाहरण के तौर पर मैं कुछ और गूढ़ बात कहता। वैसे छोटी-मोटी कहावतें गढ़ने की काबिलियत मैं अतीत है वह कवच विरल, तोंद लिए जिसमें वापस जाना नहीं है सरल।
***
‘यह अच्छी कही, डॉक्टर रोज़ ने मुस्कुराते हुए कहा। उनकी मुस्कराहट बहुत उदार है। उनकी मुस्कुराहटें इतने प्रकार की हैं, कि उनसे एक पूरी थैली भरी जा सकती है। अगर आप उन्हें किसी मुस्कान प्रतियोगिता में शामिल कर दें, तो वह इतने सारे पुरस्कार जीत सकते हैं, जिन्हें ढो कर घर लाना भी संभव नहीं होगा। पिछले दो सालों में, मुझे देखकर वह कम से कम दर्ज़न भर अलग-अलग ढंग से मुस्कुराए होंगे, लेकिन बदले में मेरी वही एक उदास मुस्कुराहट पाई थी।
‘तुम्हें और ऐसे लेख लिखने से किसने रोका था, अमर?' डॉक्टर रोज़ ने मुस्कुराना बंद करके मुझसे पूछा।
‘मेरे अब्बा ने,” मैंने झठ बोला।
‘अफ़सोस की बात है, उन्होंने कहा। मैंने सोचा कि शायद वह मेरे मुस्कराहट पर कटाक्ष कर रहे हैं।
डा. रोज़ लम्बे कद और अच्छे डील-डौल वाले आदमी हैं, और एक विशाल घर में रहते हैं, जिसका निर्माण उस काल की याद दिलाता है, जब फोटो ब्लैक एंड व्हाइट होते थे, गाड़ियाँ भौंडी होती थीं और उनके इंजन उनकी डिक्कियों में/ पीछे बने सामान रखने वाली डिक्कियों में होते थे और मर्द पतली मूंछे और बड़े-बड़े गलमुच्छे रखते थे। उनकी खिड़कियों में नीले, हरे जब मैं छोटा था शायद छः या सात साल का, पर किसी हालत में भी आठ से ज़्यादा नहीं-तब हमारी अम्मी दुर्भाग्य को घर में प्रवेश करने से रोकने के लिए उसके सदर दरवाज़े में छोटी-छोटी कीलें ठोका करती थीं। इसलिए जब दुर्भाग्य ने पीछे के रास्ते घर में प्रवेश किया, तब तक मैं बड़ा हो चुका था, शायद तेरह या चौदह या फिर सोलह साल का, और मैं उसे परिवार का एक सदस्य ही मानने लगा था—हमारे अब्बा-अम्मी की चौथी संतान, जो मुझसे बड़ा और सोफिया से छोटा था। लेकिन इसके पहले कि मैं अपने वर्तमान उम्र-छब्बीस साल का होता, वह हमारी ज़्यादातर सीमित जमा-पूँजी को लेकर चलता बना।
मैं हमेशा से जानता था, कि अपने छब्बीसवें साल में मैं एक लेख लिखना शुरू करूँगा और सत्ताइस साल का होने से पहले ही उसे ख़त्म कर डालूँगा : यह एक विदाई-लेख होगा, जिसकी लंबाई सुनिश्चित नहीं होगी : एक तरह से इसे उन कमतर लोगों की संक्षिप्त आत्मकथा ही कहना ठीक रहेगा, जिनकी पारिवारिक सची काफी लंबी लेकिन गंभीर रूप से अभिशप्त और यदा-कदा कटी-फटी भी थी।
हम इस कोठी के बच्चे हैं, जो रेलमार्ग के किनारे खड़ी एक बहुत पुरानी विशाल हवेली है। तकरीबन हर आधे घंटे में, जब कोई ट्रेन शहर से होकर गुज़रती है, तब इसकी ईंट की दीवारें धीरे-धीरे काँपने लगती हैं। मैं हमसा और असमा की चौथी संतान हूँ, वो दो लोग जिन्हें कभी मिलना ही नहीं चाहिए था, या कम से कम शादी तो बिलकुल ही नहीं करनी चाहिए थी।
हमारे अब्बा-अम्मी में कोई समानता नहीं थी, सिवाय इसके के वे हम चारों के वालिदैन थे। मुझे याद आता है, कि मैंने डॉक्टर रोज़ को बताया था, कि वह खड़िया और पनीर की तरह बिलकुल अलग-अलग थे (मेरे मन में उनकी छवि दो आसपास रखे सफ़ेद शिलाखंडों की है, जिनमें साथ-साथ रहने के बावजूद कभी कोई बदलाव नहीं आया था। न पनीर कभी सख्त हुआ और न खड़िया कभी मुलायम । डॉक्टर रोज़ ने मुझसे यह नहीं पूछा कि अब्बा और अम्मी में से मैं किसे पनीर मानता था। वह मेरी तरफ देखकर सिर्फ मुस्कुराए और फिर कनखियों से अम्मी को देखा, जो करीने से कतारबद्ध उन पुरस्कारों को सराहनीय दृष्टि से देख रही थीं, जो लोगों की दिमागी हालत ठीक करने के लिए उन्हें दिए गए थे।
और लाल शीशे जड़े हुए थे, छत पर आकर्षक नारंगी रंग के खपड़े लगे हुए थे, एक चौड़े गलियारे में कॉफी रंग के भूरे खंभे खड़े थे, बरामदे में सागौन की लकड़ी का झला सोने का पानी चढ़े जंजीरों से लटका हुआ था, और दरवाज़े पर पीतल का एक बड़ा सा घंटा झुलाया हुआ था। घर में प्रवेश पाने के लिए इसे ही बजाना पड़ता था। दरवाज़े पर बिजली की घंटी नहीं थी, देखा? वह मुझे अतीत में नहीं जीने का परामर्श देते हैं और खुद उसी में जीते हैं।
हर बैठक के अंत में अम्मी अपने नकली चमड़े के बैग को ख़ट की आवाज़ के साथ खोलती हैं और एक लिफाफा निकाल कर अस्थाई खुशी की कीमत चुकाती हैं। वह लिफाफे को कभी भी डॉक्टर रोज़ को सीधा नहीं पकड़ातीं, क्योंकि उनके ऐसा करने से शायद वह बुरा मान जाते, और जब वह लिफाफे को एक पेपरवेट के नीचे दबाने लगती हैं, तो वह खिड़की से बाहर ऐसे देखने लगते हैं, जैसे उन्होंने इस बात का ज़्यादा बुरा नहीं माना हो। उनकी निगाहें एक सुन्दर से बगीचे पर टिकी रहती हैं, जो ज़ाहिर है—गुलाब की झाड़ियों से भरा पड़ा है।
डॉक्टर रोज़ यानी डॉक्टर गुलाब-जो गुलाब की दीवारों वाले घर में रहते हैं और जिससे सटा बागीचा भी गुलाबों की झाड़ियों से अँटा पड़ा है। कभी कभी जीवन आपके अस्तित्व को बेहिसाब ढंग से दोअर्थी शब्दों में परिभाषित कर देता है, पर मुझे उसकी यह अनेकार्थी अभिव्यक्ति अच्छी लगती है। बहत पहले मैं विज्ञापन के पेशे से कॉपीराईटर/ विज्ञापन-लेखक बनकर जुड़ना चाहता था, और विज्ञापनों के अलावा वह मज़ेदार छोटे-छोटे गीत या जिंगल्स लिखकर अपनी जीविका कमाना चाहता था, जिन्हें लोग शौचालयों में या लंबी कतारों में खड़े गुनगुनाते रहते हैं। लेकिन यह कपोल-कल्पना एक ग्रीष्मऋतु भी नहीं टिक पाई, पर जब तक यह ख्याल बना रहा, वह मेरे दिलो-दिमाग पर कुछ इस तरह छाया रहा, कि मैंने अपनी बड़ी बहन जसीरा की पत्रिकाओं में से डबल बुल के विज्ञापनों को काट-काट कर खिड़कियों की कतार के ऊपर वाली दीवार पर चिपका दिया। हम यह भड़कीली पत्रिकाएँ खरीदते नहीं थे, बल्कि जसीरा इन्हें किसी एंग्लो - इंडियन परिवार से माँग कर लाती थी, जो रेलमार्ग से काफी दर रहता था और उन्हें कभी वापस नहीं करती थी। अपनी पत्रिकाओं की दुर्दशा देखकर जसीरा आसमान सिर पर उठा लेती थी। लेकिन खिड़कियों के नीचे खड़ी होकर सोफिया सिर्फ उन कतरनों को, न कि उनकी कला को, या उनपर लिखी पंक्तियों को सराहती थी, जिनमें चिकने-चुपड़े मर्द इस जानकारी से बेज़ार नज़र आते थे, कि उनकी कुलटा माताएं उनके पिताओं को धोखा देकर विवाहेतर संबंधों में फँसी हुई थीं।
अगर दुर्भाग्य की गिनती न की जाए तो, सोफिया हमसा और अस्मा की तीसरी संतान है। हम गिनती में छ: या सात हो सकते थे, लेकिन अम्मी को कई गर्भपात हुए थे, और मेरी एक बहन तो जिस दिन आई थी, उसी दिन वापस भी चली गई, जैसे उसे हमारी जगह ज़रा भी पसंद न आई हो।
एक नन्ही शीशी जितनी बड़ी लड़की, जिसका जन्म बारिशों में ठीक उस दिन हआ था, जब मैं पहली बार स्कल गया था। मसलाधार बारिश की गड़गड़ाहट में, मैंने अल्लसुबह उसे रोते सुना था। उसकी आवाज़ बरसों बाद किसी बंद खिड़की के खुलने पर होनेवाली चरमराहट जैसी थी, लेकिन जब मैं स्कूल से लौटा, तब वह बिस्तर पर नहीं दिखी, हालाँकि अम्मी के हाथ तब भी उस जगह को घेरे हुए थे, जहाँ मेरी बहन के सोने से चादर पर सलवटें पड़ गईं थीं। अचानक ही उसकी गैरहाजिरी से मैं फिर परिवार का सबसे छोटा सदस्य बन गया। बंगले के जच्चा घर में इसके बाद फिर कुछ ख़ास नहीं हुआ और मैं हमेशा के लिए परिवार का सबसे छोटा सदस्य बन कर रह गया।
लेकिन छोटे होने का कोई ख़ास फायदा मुझे कभी नहीं मिला-एक ज़्यादा लॉलीपोप भी नहीं। जब हमारे शहर पर कभी आंधी-तूफान का प्रकोप होता, तब भी घबराहट में किसी बड़े हाथ को अपनी नन्ही उँगलियों से थामने का या किन्हीं आश्वस्त करती हई टाँगों के पीछे खासकर जब पलिसवाले गज़रते हों, छिपने का सुख भी मुझे कभी नहीं मिला। वह जसीरा ही थी, जिसे कोठी के बाहर और भीतर सारा ध्यान आकर्षित करने और सुख-सुविधाओं को पाने का सही तरीका मालूम था। इसके लिए कभी रोना-बिसूरना और कभी गुस्सा दिखाने के अलावा उसे और भी कई तरीके मालूम थे। अपने मनचाहे काम करवाने के लिए वह सोच-समझकर योजनाएं बनाती। इंकार के पहले इशारे पर ही वह रोना चालू कर देती या घर से भाग जाने की धमकी देती और इन तरकीबों के काम नहीं आने पर, वह अपने सुन्दर लंबे बालों को नोचना शुरू कर देती या पागल होने का नाटक करके अपनी ही परछाईं से विचित्र आवाज़ में बातें करने लगती। यू विरोध की सारी दीवारें अपने आप ढह जातीं और वह आसानी से जो भी चीज़ या फायदा चाहती हासिल कर लेती। ध्यान आकर्षित करने के मामले में वह बेहद जुनूनी थी, और इसके लिए उसे कोठी से बाहर एक उँगली तक भी नहीं हिलानी पड़ती थी। अम्मी की बेचैनी के बावजूद जसीरा को उसकी कातिल खूबसूरती सुहुदा फूफी से मिली थी, जो अपनी जवानी में बेहद खूबसूरत हुआ करती थीं; और अब्बा की दहशत के बावजूद वह सुहुदा फूफी की तरह बेहद सनकी भी थी, जिनका दो बार तलाक हो चुका था और जिनके तीसरे पति को जोरू का पक्का गुलाम कहकर खानदान में खिल्ली उड़ाई जाती थी। लेकिन फूफी की जगह जसीरा हर तीसरे दिन अपने बालों को शैम्पू करती और अपने काँख के बालों को साफ करने के लिए कभी-कभी अब्बा के रेज़र का भी इस्तेमाल कर लिया करती। मैंने उसे एक बार पेटीकोट पहने दर्द से चीखते हुए पकड़ा था, जब वह अपनी काँखों की हजामत के बाद, उनके छोटे-मोटे ज़ख्मों पर ओल्ड स्पाइस लोशन को मरहम की तरह जल्दी-जल्दी थपक रही थी।
कोठी की नीची चारदीवारी के बाहर, ज़ाहिर है उसके कद्रदान