112
pages
Hindi
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2022
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Publié par
Date de parution
30 juin 2022
Nombre de lectures
2
EAN13
9789354922589
Langue
Hindi
Publié par
Date de parution
30 juin 2022
EAN13
9789354922589
Langue
Hindi
हिन्द पॉकेट बुक्स
साढ़े तीन घंटे
10 जून, 1955 को मेरठ में जन्मे वेद प्रकाश शर्मा हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार थे। उनके पिता पं. मिश्रीलाल शर्मा मूलत: बुलंदशहर के रहने वाले थे। वेद प्रकाश एक बहन और सात भाइयों में सबसे छोटे हैं। एक भाई और बहन को छोड़कर सबकी मृत्यु हो गई। 1962 में बड़े भाई की मौत हुई और उसी साल इतनी बारिश हुई कि किराए का मकान टूट गया। फिर एक बीमारी की वजह से पिता ने खाट पकड़ ली। घर में कोई कमाने वाला नहीं था, इसलिए सारी जिम्मेदारी मां पर आ गई। मां के संघर्ष से इन्हें लेखन की प्रेरणा मिली और फिर देखते ही देखते एक से बढ़कर एक उपन्यास लिखते चले गए।
वेद प्रकाश शर्मा के 176 उपन्यास प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त इन्होंने खिलाड़ी श्रृंखला की फिल्मों की पटकथाएं भी लिखी। वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आज तक करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास सुपर स्टार का दर्जा रखता है।
हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित
लेखक की अन्य पुस्तकें
वर्दी वाला गुण्डा सुहाग से बड़ा सुपरस्टार चक्रव्यूह कारीगर खेल गया खेल सभी दीवाने दौलत के बहु मांगे इंसाफ़ कैदी नं 100 पैंतरा हत्या एक सुहागिन की
वेद प्रकाश शर्मा
साढ़े तीन घंटे
विषयक्रम
साढ़े तीन घंटे
फॉलो पेंगुइन
कॉपीराइट
साढ़े तीन घंटे
बारह दिसंबर!
हम पति-पत्नी के लिए यह दिन वर्ष के शेष तीन सौ चौंसठ दिनों से बिल्कल अलग और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिन है, क्योंकि इसी पवित्र दिन हम दाम्पत्य-सूत्र बंधन में बंधे थे।
अपने इस महान् पर्व को सिर्फ हम दोनों पूरी शक्तिशाली और सादगी के साथ मनाया करते हैं, इसलिए प्रत्येक वर्ष के बारह दिसंबर को मेरठ से कहीं बाहर, दूर, किसी हिल स्टेशन, महानगर या ऐतिहासिक महत्त्व के स्थान पर निकल जाते हैं। इससे हमारा इन्जॉय तो होता ही है, साथ ही नई-नई चीजें देखने, विभिन्न किस्म के लोगों से मिलने आदि से ऐसी-जानकारियां भी मिल जाती हैं, जिसने मुझे अपने पाठकों के लिए दिलचस्प और नए-नए कथानक तैयार करने में मदद मिलती है। ऐसा ही एक कथानक मुझे इस बार ‘जिन्दल पुरम्’ से मिला।
जी हां! जिन्दल पुरम्। एक औद्योगिक नगर। इस बार हमने अपना ‘मैरिज डे’ इसी औद्योगिक नगर में गुजारने का निश्चय किया था। इस नगर में जो कथानक मुझे मिला, इस बार साढ़े तीन घंटे के नाम से उसी को कलमबद्ध कर रहा हूं।
‘जिन्दल पुरम’ पहुंचने पर हमने वहां के सबसे अच्छे होटल ‘इन्ज्वॉय’ में एक कमरा लिया। थोड़ी देर आराम और स्नानादि करके घूमने निकल गए।
यह नगर सिर्फ एक व्यक्ति ने बसाया था। जी हां, केवल एक ही व्यक्ति ने अपनी अक्ल, लगन, परिश्रम और योग्यता से। उस व्यक्ति का नाम था-हरिकेश बहादुर जिन्दल। प्रसिद्ध था कि हरिकेश बहादुर का जन्म एक गरीब दम्पति की झोपड़ी में हुआ था। वे अपने माता पिता की प्रथम संतान थे। उनके बाद, उनके तीन छोटे भाई और दो बहनें भी इस दुनिया में आ गई। एक दुर्घटना में पिता अपाहिज हो गए। गृहस्थी का सारा भार हरिकेश बहादुर पर आ पड़ा। उस वक्त हरिकेश बहादुर की उम्र केवल सोलह साल की थी, जब गृहस्थी चलाने के लिए एक लॉटरी का पत्ता लेकर अपनी झोपडी के बाहर बैठा। साठ साल की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह कागज़ बनाने वाली एक मिल का मालिक बन गया। अब व्यापार में उसके छोटे भाई भी उसके साथ थे। देखते ही देखते वे एक के बाद दूसरी मिल की स्थापना करते चले गए।
नब्बे साल की आयु में हरिकेश बहादुर की मृत्यु हो गई।
परंतु अपने पीछे वे एक भरा पूरा परिवार पत्नी और बच्चे छोड़ गए थे। साथ ही छोड़ गए थे खूब फैला हुआ बिजनेस, जिसे उनके भाईयों और पुत्रों ने मिलकर संभाला ही नहीं, बल्कि बढ़ाते ही चले गए। हरिकेश बहादुर के बाद से चार पीढ़ियां बदल गई।
आज परा ‘जिन्दल परम’ बस गया है।
नगर में जिन्दल परिवार की शुगर फैक्टी, डिस्टलरी, कपड़ा मिल, कागज़ मिल, रबर फैक्ट्रियां आदि लगभग हर वस्तु का उत्पादन करने की फैक्ट्री है। नगर के लोग जिन्दल परिवार के प्रत्येक सदस्य को पूज्यनीय मानते हैं। हरेक के दिल में, उनके लिए असीमित श्रद्धा एवं सम्मान है।
इस समय जिन्दल परिवार में केवल तीन ही प्राणी हैं। सबसे बड़े गजेन्द्र बहादुर जिन्दल, उनका युवा पुत्र अनूप जिन्दल और उनकी पत्नी विभा जिन्दल।
आप लोग, यानी मेरे पाठक सोच रहे होंगे कि मैं व्यर्थ ही जिन्दल परिवार का विवरण इसलिए लिखकर आप लोगों को बोर क्यों कर रहा हूं! लेकिन नहीं, मैं ऐसी एक पंक्ति भी लिखना पंसद नहीं करता, जिसका मेरे मूल कथानक से संबंध न हो।
मैं तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि वहां मेरी मुलाकात विभा से हो जाएगी। जी हां, उस विभा से जिसका ख्याल आते ही मैं बेचैन-सा हो उठता हूं। जुबां पर नाम आते ही दिल बेकाबू होकर धड़कने लगता है। मेरे अतीत का एक टुकड़ा रह-रहकर आंखों के सामने चकराने लगता है। विभा से मुलाकात होने के बाद जो कुछ हुआ वह एकदम अप्रत्याशित, दर्दनाक सनसनीखेज और अत्यन्त ही रहस्यमय था। मेरे अब तक के लिखे गए हर जाससी उन्यास से कहीं ङ्केज्यादा रहस्यमय शायद इसीलिए मैंने उस सबको एक कथानक के रूप में अपने पाठकों के सामने रखने का निश्चय कर लिया। हालांकि मैं जानता हूं कि मेरे इस कृत्य को विभा बदतमीजी और जलालत ही कहेगी। मेरे दिल की धड़कन मुझसे नाराज भी हो सकती है, परंतु अंजाम चाहे जो हो, एक सच्चा कलाकर होने के नाते वह सारा किस्सा साढ़े तीन घंटे में लिख रहा हूं। लगता है कि मैं बहक रहा हूं। भावनाओं में बह रहा हूं। ढेर सारी बातें बहुत जल्दी, एक ही सांस में कह देना चाहता हूं। यदि मैं इसी तरह लिखना रहा तो सब कुछ अटपटा-सा लगेगा, अतः अगले अनुच्छेद से प्रत्येक घटना को क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत कर रहा हूं।
उस रोज तेरह दिसंबर था।
कुछ लोग ‘तेरह’ के अंक को मनहूस मानते हैं। कम से कम उस तेरह दिसंबर से पहले मैं ऐसे लोगों में से नहीं था, परंतु उस दिन घटी हृदयविदारक घटना ने मुझे भी यह मानने के लिए बाध्य कर दिया कि यह अंक सचमुच किसी न किसी रूप में मनहूस होता है।
दोपहर का समय।
करीब एक बज रहा था।
मैं और मधु (यह मेरी पत्नी का नाम है) इन्जवॉय के रेस्त्रां में बैठे लंच ले रहे थे।
मधु खाने में व्यस्त थी, अचानक ही मैंने उसे पुकारा–“मधु।”
“जी।” मधु के हाथ रूक गए।
“खाना वाकई अच्छा है।”
“जी हां, रात के खाने से तो बहुत ही अच्छा, उस खाने को खाते वक्त तो मैं यह सोच रही थी कि घुमाने के नाम पर जाने इस बार आप मुझे कैसे शहर में ले आए हैं?”
मैं मुस्कुरा दिया, बोला–“क्यों, जिन्दल पुरम् पसंद नहीं आया क्या?”
“अब तो पसंद आ रहा है।” मधु भी मुस्कुराई।
“मैं खाने के नहीं, इस शहर के बारे में पूछ रहा हूं बेवकूफ।” मधु की मुस्कुराहट गहरी हो गई वह जानती है कि जब मुझे उस पर ज्यादा प्यार आता है तो मैं अक्सर उसे बेवकूफ कह दिया करता हूं, बोली-“शायद आपको मालूम नहीं कि अच्छा खाना मिलना भी अच्छे शहर की खूबियों में से एक है।”
“तुम औरतों को तो बस खाने से ही मतलब है।” मैंने छेड़ा।
“हां-हां, क्यों नहीं और तुम मर्दो को क्या चाहिए, सैर-सपाटा, आंखें सेंकने के लिए बाजार में घूमती तितलियां।”
“सबसे खूबसूरत तितली तो मेरे सामने बैठी है।”
“बस-बस, बनाने को रहने दीजिए। मैं आपकी बीबी हं, पाठक नहीं जो आपकी लच्छेदार बातों में फंसने के लिए पांच रुपये का नोट बर्बाद कर देते हैं।”
इस चुहलबाजी को जारी रखने के लिए अभी मैंने मुंह खोला ही था कि अचानक डायनिंग हॉल में एक शोर-सा उठा। काउण्टर क्लर्क सहित कई के मुंह से दबा-सा स्वर निकला–
“अनूप साहब। अनूप साहब!”
हमारा ध्यान भी भंग हो गया।
अचानक ही सरगर्मी-सी बढ़ गई थी। मेजों पर लंच लेते ग्राहक
खड़े हो गए। होटल के स्टॉफ का प्रत्येक कर्मचारी साधारण अवस्था से बहुत ज्यादा चुस्त और चौकस नजर आने लगा और ऐसा उस युवा जोड़े के कारण हुआ था, जो अभी-अभी हॉल में प्रविष्ट हुआ था।
मधु और हॉल में मौजूद सभी लोगों के साथ मेरी नजर भी उस तरफ उठ गई। काउण्टर के समीप खड़ा वह खूबसूरत जोड़ा मुस्कुरा रहा था। युवक किसी राजकुमार के समान सुंदर था और युवती!
उफ्फ! मेरा दिल बहुत जोर से धड़क उठा। धड़कता हुआ गोश्त का लोथड़ा जैसे कंठ में आ फंसा। बरबस ही मेरे कंठ से दबी-दबी चीख निकल गई–“विभा!”
मधु चौंककर मेरी तरफ देखने लगी!
मेरा ध्यान मधु की तरफ बिल्कुल नहीं था। दिल नियंत्रण से बिल्कुल बाहर होकर किसी हथौड़े के समान पसलियों पर चोट कर रहा था। मैं एकटक उसी तरफ देख रहा था। दृष्टि उसी पर चिपककर रह गई थी। विभा के मुखड़े पर! हां, निश्चय ही वह विभा थी। इन्द्र के दरबार की मेनका-सी। उतनी ही सुंदर, जितनी तब भी थी जब वह मेरे साथ पढ़ा करती थी, बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा। दूध से गोरे, पूर्णिमा के चांद से गोल मुखड़े पर वे ही मृगनयनी आंखें। पंखुड़ियों जैसे होंठ। सुतवा नाका घने, काले और लम्बे बाल। कंठ ऐसा, जैसे कांच का बना हो। हां, वह विभा ही थी विभा!
उसके होंठों पर मुस्कान थी। जिस्म पर सच्चे गोटे के भारी जाल वाली कढ़ाई की साड़ी। उसी से मैच करता ब्लाऊज। गोल, भरी हुई कलाइयों में सोने की हीरे जड़ित चूड़ियां। गले में कीमती हीरों का जगमग करता नेक्लेस, होंठों पर नेचुरल कलर की लिपिस्टिक। मुखड़े पर हल्का-सा मेकअप। मस्तक पर नाक के ठीक ऊपर सिंदूरी सूरज। सिंदूर से भरी मांग। नाक में नथ, और कानों में लटकने वाले बुन्दे पहने वह विभा ही खड़ी थी। कमान सी भवों के नीचे उसकी काली और गहरी, मुस्कुराती-सी आंखों में मैं खो गया।
मधु शायद एकटक उस वक्त मुझे ही देख रही थी। विभा की दृष्टि अभी तक मुझ पर नहीं पड़ी थी।
मेरे दिमाग में बड़ी तेजी से सवाल उभरा कि अगर वह मुझे देख ले तो क्या पहचान लेगी? और यदि पहचान भी ले तो क्या मुझसे बात करेगी?
अचानक ही जाने कहां से इन्जवॉय का मैनेजर प्रकट होकर उनके सामने पहुंचा। सेवक की तरह झुककर उनकी अगवानी की। शायद उसने कुछ कहा!
अनूप और विभा एक खाली सीट की तरफ बढ़ गए।
मेरे दिमाग में बड़ी तेजी से विचार कौंधा कि यह अनूप वही, जिन्दल परिवार का एकमात्र जीवित चिराग अनूप जिन्दल है और वह उसकी पत्नी है।
विभा जिन्दल!
ओह! मेरे दिमाग में पहले ही यह ख्याल क्यों नहीं आया कि यही विभा, विभा जिन्दल होगी। आता भी कैसे, मैं तो ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था कि विभा इतने बड़े घराने की बहू बन गई होगी।
जो कुछ अपनी आंखों से देख रहा था, मुझे तो अब भी वह सब कुछ स्वप्न-सा लग रहा था। इस परिवार के साथ जुड़कर विभा शर्मा, विभा जिन्दल बन गई है।
अभी अतीत का वह टुकड़ा मेरी आंखों के सामने उभरा ही था कि “कहां खो गए जनाब, क्या वह मुझसे भी सुंदर तितली है?” मधु ने मुस्कुराकर कहा।
मैं बुरी तरह चौंका, बोला-“व . . . वह विभा है, मधु।”
“कौन विभा?” मधु ने धीमे से पूछा।
परंतु मैंने हड़बड़ाहट में अपना वाक्य इतनी जोर से बोल दिया था कि आवाज हॉल में मौजूद दूसरे लोगों के अतिरिक्त अनूप और विभा ने भी सुन ली थी। दूसरों के समान चौंककर उन्होंने भी मेरी तरफ देखा, अगले ही पल विभा के कंठ में कहीं सितार बजा–“व . . . वेद?”
मैं उछल पड़ा। मधु के सवाल का जवाब दिए बिना हक्का-बक्का ... सा विभा की तरफ देखने लगा।
“ओह, तुम तो सचमुच वेद ही हो!” विभा रूपी कोयल पुनः कूकी, वह खुश होकर लपकती-सी हमारी सीट की तरफ आई। हड़बड़ाकर मैं एक झटके से खड़ा हो गया।
मधु भी खड़ी हो गई।
“ह . . . हां विभा!” मैं हक्का-बक्का -सा था “म . . . मैं तो तुम्हें यहां देखकर चकित रह गया!”
सारे हॉल की तरह मधु भी चकित निगाहों से हमारी तरफ देख रही थी। तब तक अनूप भी हमारी सीट के करीब आ चुका था, विभा ने बताया “ये मेरे पति हैं, अनुप जिन्दल और ये हैं वेद प्रकाश शर्मा। मेरे साथ एल.एल बी. में पढ़े हैं। वही, जिनके आप उपन्यास पढ़ते हैं।”
“ओह!” कहने के साथ ही अनूप ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, बोला “आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई शर्मा जी। मैं आपका फैन हूं। विभा अक्सर कहा करती थी तुम इसके साथ पढ़े हो।”
“म . . . मुझे भी!” मैंने जल्दी से हाथ म