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pages
Hindi
Ebooks
2022
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Publié par
Date de parution
21 mars 2022
Nombre de lectures
2
EAN13
9789354923593
Langue
Hindi
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Date de parution
21 mars 2022
EAN13
9789354923593
Langue
Hindi
हिन्द पॉकेट बुक्स
मैं और माँ
दिव्या दत्ता भारतीय फ़िल्मों की एक मशहूर अभिनेत्री हैं जो अस्सी से ज़्यादा फ़िल्मों में काम कर चुकी हैं। उनकी पैदाइश और परवरिश पंजाब के लुधियाना में हुई। उन्होंने बॉलीवुड और पंजाबी सिनेमा में अपना ख़ास मक़ाम बनाया है। इसके अलावा उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों में भी सराहनीय काम किया है। वह अदाकारी के हर क्षेत्र में तरह-तरह के रोल्स बख़ूबी निभाने के लिए जानी जाती हैं और पैरेलल सिनेमा की प्रमुख अभिनेत्री मानी जाती हैं। दिव्या ने फ़िल्म-इंडस्ट्री में राष्ट्रीय पुरस्कार, आइफ़ा व ज़ी-सिने (बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस) जैसेे कई नामी एवॉर्ड एवं सम्मान हासिल किए हैं।
1948 में जन्मे सेवक नैयर एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार, नाटककार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पंजाब में कई वर्षों तक अंग्रेजी के लेक्चरार रहने के बाद उन्होंने 1976 में आईएएस की एलाइड सर्विस, भारतीय रक्षा संपदा सेवा में प्रवेश किया। उनकी उर्दू शायरी, हिंदी कहानियाँ, और अंग्रेजी में “मिड्ल्स” एवं फ़ीचर्स उनके पाठकों को पसंद आते रहे हैं। दुनिया के तीस प्रख्यात एकांकियों के उनके भारतीय भाषाओं में अनुवाद न केवल व्यापक रूप से प्रकाशित हुए हैं बल्कि दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थानों द्वारा मंचित भी किए गए हैं। उनके अपने थिएटर ग्रुप ने लोकप्रिय नाटकों के 300 से अधिक शो करके राष्ट्रीय जन-कल्याण में योगदान दिया है। नैयर जी महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार (2019) और सोन-इंदर सम्मान, पुणे (2021) से सम्मानित हैं।
दिव्या दत्ता
मैं और माँ
सेलिब्रेटिंग ज़िंदगी
अनुवाद : सेवक नैयर
विषय-सूची
प्रस्तावना : बेटी के बिना नहीं
लेखक की ओर से
1. यादों के दरीचे से
2. दुनिया की ओर . . . नन्हे क़दम
3. वह मेरा छोटा राजकुमार
4. दो सफ़र . . . एक अलविदा
5. मेरा दिल्ली प्रवास
6. त्रासदी
7. हँसमुख माँ और समर्पित बच्चा
8. जब मैं बड़ी हो गई
9. कर्फ्यू के दिन
10. कॉलेज . . . और एक नई शुरुआत
11. मुम्बई में ऑडिशन
12. तक़दीर के खेल
13. तूफ़ानी सफ़र
14. वही घर लेकिन अलग जीवन
15. फ़ैसले की घड़ी
16. बनते-बिगड़ते रिश्ते
17. बदलता मौसम
18. माँ से पंगा नहीं . . .
19. एक विशेष बर्थडे
20. दिव्या की मम्मी . . .
21. पाकिस्तान की यात्रा
22. परी-माँ के साथ दुनिया की सैर
23. मंच और प्रदर्शन
24. शादी की ख़ुशी
25. दो मिनट का जादू
26. वे आखिरी दिन
27. ज़िंदगी की कड़ियाँ . . .
28. आइस क्रीम और कुछ और
उपसंहार
आभार
फॉलो पेंगुइन
कॉपीराइट
प्रस्तावना बेटी के बिना नहीं
वो दो बदन एक जान थीं। उनके बिना दिव्या की कल्पना करना भी कठिन था। वह साए की तरह उसके साथ रहती थीं। इसलिए नहीं कि उनके पास करने को कुछ नहीं होता था बल्कि, इसलिए कि माँ-बेटी को, किसी और की बजाए, एक-दूसरे के साथ समय बिताना अच्छा लगता था। उन्हें साहित्य, शायरी और ज़िंदगी में बहुत रुचि थी। मुझे कई फिल्मों के सेट्स पर उनसे मिलने का मौक़ा मिला। इस बीच कई विषयों पर हमारी बातचीत हुई तो मुझे एहसास हुआ कि उन्हें देखकर जो ख़ाका मेरे दिमाग में उभरता था, नलिनी दत्ता उससे बिल्कुल अलग थीं।
जब दिव्या की इस किताब के माध्यम से मैंने नलिनी जी के बारे में पढ़ा, तो पता चला कि उन्होंने कितना अलग जीवन जिया था। उनके विवाह को अभी कुछ वर्ष ही हुए थे कि उनके पति का देहांत हो गया था और दोनों बच्चों के लिए माँ-बाप के प्यार का ज़िम्मा उनपर आन पड़ा था। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। हर कठिनाई का सामना बहादुरी से करती रही थीं और हँसते-खेलते दोनों बच्चों की परवरिश बढ़िया तरीके से की थी। दिव्या अभी उन्नीस की ही हुई थी कि उसके लिए अमेरिका से एक रिश्ता आया। लड़का डॉक्टर था। कोई भी माँ इतने बढ़िया रिश्ते पर टूट पड़ती। दिव्या की नानी और अंकल ने तो कोशिश भी की कि इसे हाथ से न जाने दिया जाए। लेकिन नलिनी जी न मानीं। उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया, ‘नहीं भाई साहब, मेरी दिव्वु बच्ची है, अभी। मैं चाहती हूँ कि ज़िंदगी को समझने के लिए उसे थोड़ा वक्त दूँ . . . ’ और उन्होंने ऐसा ही किया। ज़िंदगी के हर उतार-चढ़ाव में वह बेटी के साथ खड़ी रहीं, उसकी छोटी-बड़ी सब इच्छाएँ पूरी करती रहीं। जब तक ज़िंदा रहीं, बेटी के सपनों को साकार करने में लगी रहीं।
दिव्या के लिए उसकी माँ ही सब कुछ थी, उसकी रहनुमा, हमसफ़र और हमराज़। वह हर बात के लिए माँ का मुँह देखती थी, उसी पर निर्भर रहती थी। प्यार-मुहब्बत, सच्चाई, वायदा-निभाना, ईमानदारी जैसी इंसानी कद्रों का हर सबक दिव्या ने माँ से ही सीखा था।
नलिनी जी पेशे से डॉक्टर थीं, बहुत बड़ी डॉक्टर जिन्होंने सारी ज़िंदगी, पंजाब के एक छोटे-से कस्बे में हर तरह की सुख-सुविधाओं से वंचित रहकर लोगों की सेवा की, लेकिन माथे पर कभी शिकन तक नहीं आने दी। बच्चों ने भी माँ की सब ख़ूबियों को हू-ब-हू अपने जीवन में अपनाया। नलिनी जी की करनी और कथनी में कोई अंतर न था। वह वही करती थीं जो उन्हें दिल से सही जान पड़ता था। वह दिव्या का शक्ति-स्तम्भ थीं, उसके जीवन का आधार। दिव्या ने इस किताब में नलिनी जी की ज़िंदगी के कई ऐसे खाके पेश किए हैं . . . दिल को छू लेने वाले कई किस्से बयान किए हैं, जो उसके मन पर कभी न मिटने वाली छाप छोड़ गए।
किताब में दिल्ली की ऐसी ही एक घटना का उल्लेख है जिसमें नलिनी जी बच्चों के मनबहलाव के लिए उन्हें एक पार्क में ले जाती हैं। नाव की सैर के समय, मल्लाह से झगड़ती हुई वह तालाब में गिर पड़ती हैं! दस साल की बच्ची दिव्या घबराई हुई यह देखती है और आम बच्चों की तरह डरने की बजाए, अपनी जान की बाज़ी लगाकर माँ को बचाने के लिए ख़ुद पानी में कूद पड़ती है। मुझे नहीं लगता कि ऐसे हालात में उसकी उम्र का कोई बच्चा ऐसा कर पाता। लेकिन इन माँ-बेटी की तो बात ही अलग थी, इनकी तो जैसे अभी तक नाल भी नहीं काटी गई थी . . .
और फिर यूँ हुआ कि पलक झपकते ही सब बदल गया। नलिनी जी बीमार रहने लगीं। क़िस्मत को शायद यही मंज़ूर रहा होगा। वह ख़ुद डॉक्टर थीं, लेकिन इस बात का अंदाज़ा न लगा पाईं कि रात-दिन की लोक-सेवा और अपने खुद के प्रति लापरवाही की वजह से उनके स्वास्थ्य का कितना नुक्सान हो चुका था। माँ की देख-भाल की सारी ज़िम्मेदारी दिव्या पर आ पड़ी थी। उसका भाई राहुल डॉक्टर था और सुनिश्चित करता रहा कि माँ दवाइयाँ वक्त पर लेती रहे। लेकिन माँ की तीमारदारी करते-करते दिव्या एकदम बड़ी हो गई थी। माँ की ठीक वैसी डाँट-डपट करने लगी जैसी वह बचपन में दिव्या की किया करती थी। दिल ही दिल में नलिनी जी जानती थीं कि अब ज़िंदगी के नियम बदल चुके थे। बेटी ने माँ का चोला पहन लिया था। ज़िंदगी पूरी करवट बदल रही थी।
जब मुझे पता चला कि नलिनी जी की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ रही है, हम ‘चाक एंड डस्टर’ की शूटिंग कर रहे थे। दिव्या एक अच्छे पेशेवर की तरह बा-क़ायदा सेट पर आती थी और काम ख़त्म होते ही अस्पताल लौट जाती थी। हम उसे देखते ही समझ जाते थे कि नलिनी जी का स्वास्थ्य कैसा है – उसके चेहरे के हाव-भाव सब कुछ बयान कर देते थे . . . आशा, निराशा और असमंजस।
उसके कुछ दिन बाद ही सब ख़त्म हो गया। जब जावेद और मैं उसे देखने गए तो दिव्या एकदम पत्थर-सी बनी बैठी थी, जैसे सुख-दुख के एहसास की बंदिशों से आगे निकल गई हो। उसके आँसू सूख चुके थे। मैं समझ गई थी कि बाँध टूटने वाला था और जब तक यह नहीं होता, उसे इसी हाल में जीना था। किताब में दिव्या ने उन नाज़ुक घड़ियों को ऐसी सफ़ाई, सच्चाई और दिल छू लेने वाली सादगी से पेश किया है कि इसे पढ़कर मैं बहुत रोई।
मुझे इस बात की ख़ुशी है कि दिव्या ने यह किताब लिखने का फैसला किया। इससे उसे न सिर्फ अपने दुख-दर्द, निराशा और अकेलेपन से उबरने का मौका मिलेगा, बल्कि उसका मन भी हल्का हो जाएगा। दिव्या ने किताब का अंत इस उम्मीद और विश्वास से किया है कि उसकी माँ का शुभ-आशीर्वाद हमेशा-हमेशा उसके साथ रहेगा।
मेरे अब्बा के स्वर्गवास पर अनीस जंग ने मुझे जो ख़त लिखा था वह मुझे अब भी याद है : ‘हमारे माँ-बाप हमसे कभी नहीं बिछुड़ते। मौत तो केवल कमज़ोर शरीर में जकड़ी उनकी आत्मा को आज़ाद कर देती है, ताकि वह उस हवा की तरह हमेशा हमारे साथ रह सके, जिसमें हम साँस लेते हैं . . . ।’
वो एक-दूसरे के लिए बनी हैं, बनी रहेंगी . . . जनम-जनम। मैं नलिनी जी के बग़ैर दिव्या की कल्पना भी नहीं कर सकती, क्योंकि वह तो उसकी नस-नस में समाई हैं।
शबाना आज़मी
लेखक की ओर से
वह सोमवार की दोपहर थी। मेरी कार जुहू में एक शानदार इमारत के सामने आकर रुकी – फिल्म-इंडस्ट्री के एक मशहूर डायरेक्टर का ऑफिस। मैं अन्दर गई तो कई लोग मुझे देख कर उठ खड़े हुए। उनके चेहरों पर मुस्कान थी। मुझे लगा वे मेरे प्रशंसक हैं। इस तरह खड़े होकर वे न केवल मेरे तब तक के फ़िल्मी सफ़र का अनुमोदन कर रहे थे बल्कि उसका समर्थन भी।
हिंदुस्तान की फिल्म-इंडस्ट्री बहुत विशाल है। फिर भी जो लोग इससे जुड़े हैं वो इसकी गतिविधियों की जानकारी रखते हैं, चाहे वे इसके बारे में किसी से बात करें या न करें! मैंने भी उन लोगों का अभिवादन किया और डायरेक्टर से अपना रोल सुनने के लिए बैठ गई। जब वह कहानी सुना चुका तो मुझसे बोला, ‘हमें इस रोल के लिए एक स्ट्रॉंग लड़की चाहिए थी और उसके लिए आपसे बेहतर और कौन हो सकता है . . . ?’
यह सुन कर मुझे ख़ुशी हुई। हैरानी भी हुई कि मेरी ऐसी छवि कब से बन गई? ये लोग मुझे “स्ट्रॉंग” कैसे समझने लगे और क्यों? मैं तो असल में एक डरपोक-सी बच्ची हुआ करती थी। माँ और डैडी के साये में ही सुरक्षित महसूस करती थी। जब देखो, माँ के पल्लू से बंधी रहती थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि मैं “स्ट्रॉंग” समझी जाने लगी? यह ताक़त कहाँ से मिली मुझे?
फिर मुझे खयाल आया। यह सब माँ का किया-धरा था, शायद। शायद नहीं, ज़रूर उसी ने किया था। जब मैं जीवन की इस कठिन डगर पर निकली थी और इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही थी, तो माँ ने ही तो मेरा हाथ थामा था। मुझे हौसला दिया था . . . बहादुरी से जूझने की ताक़त दी थी मुझे और जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया था, माँ के व्यक्तित्व का प्रभाव मुझ पर इस क़दर पड़ने लगा था, उसकी जीवन-शैली से मैं इतनी प्रेरित होने लगी थी कि मैं उसी की छवि बनकर रह गई थी।
हम दो जिस्म, एक जान हो गए थे।
आज जब मैं माँ के प्रति अपनी भावनाओं को इस किताब के रूप में अभिव्यक्त करने बैठी हूँ, उसकी बेटी होने के नाते – और कई बार तो उसकी माँ होने के नाते से भी – तो मैं चाहती हूँ कि इस अद्भुत सफ़र में मैंने जो भी अनुभव किया है, माँ के साथ मेरे दिल के जो भी जज़्बात जुड़े हैं, उसके लिए मेरी जो भी भावनाएँ हैं . . . संवेदनाएँ हैं, मैं उन सबको पूरी ईमानदारी से शब्दों में उड़ेल दूँ ताकि वे आप तक पहुँच सकें!
मैंने उसकी माँ होने के अपने नाते का ज़िक्र इसलिए किया है, क्योंकि एक वक्त के बाद हम दोनों की ज़िम्मेदारियाँ आपस में बदलने लगी थीं। माँ की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में मैंने उनकी माँ होने की ज़िम्मेदारी संभाल ली थी। मैं उन्हें बेहद लाड़-प्यार करती थी, उन सब बातों पर डाँटती थी जिनके लिए वह बचपन में मुझे डांटा करती थी। उन्हें हाथ पकड़कर आइस क्रीम खिलाने, घुमाने और उनकी पसंद के दूसरे काम करवाने ले जाती थी। और हाँ, माँ-बेटी की ही तरह, हम में झगड़े भी होते थे। शुरू में वह ख़ूब अकड़ती थी और रूठकर घर में अपने फेवरेट कोने में जाकर बैठ जाती थी। लेकिन उसे पता होता था कि दस-एक मिनट में ही मैं उसे मनाने आ जाऊँगी। और होता भी ऐसा ही था। मुझे रूठी हुई माँ बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। और मुझसे रूठी हुई तो बिल्कुल ही नहीं। मैं उसके हाथ जोड़ती थी, माफ़ियाँ माँगती थी, लाड़-दुलार करती थी। अच्छी-ख़ासी मिन्नत-ख़ुशामद के बाद वह मान जाती थी। हम एक बार फिर “बेस्ट फ्रेंड” बन जाते थे, ऐसे घुल-मिल कर गप-शप करने लगते थे जैसे हमारे बीच कुछ हुआ ही न हो। कुछ देर बाद फिर नया झगड़ा शुरू हो जाता था, ट