Karigar/कारीगर , livre ebook

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यह कहानी एकतरफा प्रेम करने वाले नायक चक्रेश से नफरत करने वाली नायिका चाँदनी की है। कहानी चाहे कितनी भी सहज और सामान्य हो, लेकिन वेदप्रकाश शर्मा इसमें ऐसे घुमाव पैदा करते हैं कि पाठक सोचता रह जाता है आगे क्या होगा? इस दृष्टि से कारीगर उपन्यास खरा उतरता है। संपूर्ण उपन्यास में पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ यही सोचता रहता है कि कहानी में आगे क्या होगा और जो आगे होता है वह पाठक की सोच से बहुत आगे का होता है। जहाँ पाठक को लगता है कि यहाँ वही हुआ जो मैंने (पाठक) ने सोचा, ठीक उसके आगामी पृष्ठों पर पता चलता है कि पाठक का दृष्टिकोण गलत था। इस प्रकार उपन्यास की कहानी पाठक की सोच से बहुत दूर निकल जाती है।
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Date de parution

30 juin 2022

EAN13

9789354922824

Langue

Hindi

हिन्द पॉकेट बुक्स
कारीगर
10 जून, 1955 को मेरठ में जन्मे वेद प्रकाश शर्मा हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार थे। उनके पिता पं. मिश्रीलाल शर्मा मूलत: बुलंदशहर के रहने वाले थे। वेद प्रकाश एक बहन और सात भाइयों में सबसे छोटे हैं। एक भाई और बहन को छोड़कर सबकी मृत्यु हो गई। 1962 में बड़े भाई की मौत हुई और उसी साल इतनी बारिश हुई कि किराए का मकान टूट गया। फिर एक बीमारी की वजह से पिता ने खाट पकड़ ली। घर में कोई कमाने वाला नहीं था, इसलिए सारी जिम्मेदारी मां पर आ गई। मां के संघर्ष से इन्हें लेखन की प्रेरणा मिली और फिर देखते ही देखते एक से बढ़कर एक उपन्यास लिखते चले गए।
वेद प्रकाश शर्मा के 176 उपन्यास प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त इन्होंने खिलाड़ी श्रृंखला की फिल्मों की पटकथाएं भी लिखी। वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आज तक करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास सुपर स्टार का दर्जा रखता है।
हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित
लेखक की अन्य पुस्तकें
वर्दी वाला गुण्डा सुहाग से बड़ा सुपरस्टार चक्रव्यूह पैंतरा खेल गया खेल सभी दीवाने दौलत के बहु मांगे इंसाफ़ कैदी नं 100 साढ़े तीन घंटे हत्या एक सुहागिन की
वेद प्रकाश शर्मा


कारीगर
‌विषयक्रम
कारीगर
 
फॉलो पेंगुइन
कॉपीराइट
कारीगर
टायरों की जोरदार चीख-पुकार के साथ सफेद रंग की मारुति शानदार पोर्च के नीचे रुकी। जहां वह रुकी वहां की एक दीवार पर काले रंग का ग्रेनाईट पत्थर लगा हुआ था, पत्थर पर चांदी के बड़े-बड़े चमकदार अक्षरों से लिखा था–‘लक्ष्मी फिल्म्स प्रा. लि.।’
एक झटके से ड्राईविंग डोर खुला। दध जैसे सफेद कपड़े पहने लड़का बाहर निकला। वह बेहद खूबसूरत, स्मार्ट और आकर्षक था। गोरा-चिट्टा! हृष्ट-पुष्ट! गोल चेहरे वाला! साढ़े छ: फुट लंबा! अपने मस्तक पर उसने रोली का लाल टीका लगा रखा था।
सफेद टी शर्ट में चमक रहे मसल्स देखते ही बनते थे। जिस्म का हर कटाव साफ बता रहा था वह नियमित ‘जिम’ जाता है। बाल रेशमी थे। आंखें ब्राऊन। माखन में मिले चुटकी भर सिंदर जैसे रंग का था वह मगर, इस वक्त चेहरा जरूरत से कुछ ज्यादा ही सूर्ख नजर आ रहा था।
वह दाएं हाथ में नंगा रिवॉल्वर लिए बेखौफ गाड़ी से निकला था। दाएं पैर में मौजूद पीटी शू की एक ठोकर गाड़ी के खुले दरवाज़े पर मारी।
वह ‘धाड़’ की आवाज के साथ बंद हुआ। लड़का हाथ में रिवॉल्वर लिए कांच के शानदार दरवाजे की तरफ लपका।
अगले पल ‘रिशेप्सन’ जैसे स्थान पर था। वहां मौजूद आबनूस की लकड़ी के गेट पर एक प्लेट लगी थी। प्लेट पर ब्रास के अक्षरों से लिखा था–‘महेश घोष।’
नाम के नीचे अपेक्षाकृत छोटे अक्षरों में लिखा था–‘प्रोड्यूसर एंड डायरेक्टर!’
दरवाज़ा बंद था। उसके बाहर कंधे पर गन लटकाए वर्दीधारी गार्ड खड़ा था।
गार्ड लड़के को, खासतौर पर उसके आने के स्टाईल और हाथ में मौजूद रिवॉल्वर को देखकर चौंका।
अभी ठीक से कुछ समझ भी नहीं पाया था कि लड़के ने झपटकर अपने रिवॉल्वर की नाल उसकी कनपटी पर रखी। दूसरे हाथ से गुददी कब्जाई और हलक से भेड़िए की गर्राहट निकाली–“चूं-चां की तो चीं निकाल दंगा।”
गार्ड के होश फाख्ता।
चेहरा श्मशान में उड़ती राख से पता-सा नजर अपने लगा। मंह से आवाज निकालने की कोशिश की तो पाया हलक रेगिस्तान बन चुका है। जुबान हड़ताल किए बैठी है।
गार्ड की आंखों में नाच रहे मौत के सायों को घूरते लड़के ने कहा–“आमतौर पर मैं गरीब आदमी को नहीं मारता लेकिन अगर वह किसी दौलतमंद की ढाल बनने की कोशिश करे तो सबसे पहले उसी को लुढ़काता हूं।”
गार्ड बड़ी मुश्किल से कह सका–“क्या चाहते हो?”
“देखता रह।” कहने के साथ उसने एक जोरदार ठोकर आबनूस की लकड़ी के दरवाज़े में मारी।
दरवाज़ा भड़ाक से खुला।
ऑफिस में बैठे लोग चौंके। दृश्य देखकर तो उछल ही पड़े।
मगर जब तक कुछ समझ पाते या मुंह से आवाज निकालते तब तक लड़का गार्ड को कवर किए अंदर जा चुका था। डोर क्लोजर पर झलता आबनूस की लकड़ी का दरवाज़ा अपनी गति से वापस बंद होने की तरफ अग्रसर था। बेशकीमती मेज के उस तरफ खड़े अधेड़ आयु के व्यक्ति के मुंह से निकला “कौन हो तुम?”
लड़के ने कहा–“अगर नाम बताने से तेरा काम चल जाएगा तो बताए देता हूं-चक्रेश है नाम मेरा।”
“कौन चक्रेश?”
“इस नाम का मतलब है-चक्कर चलाने वाला ईश्वर!”
“मगर तुम यहां इस तरह ....”
“शटअप!” लड़का उसका वाक्य पूरा होने से पहले गुर्राया।
गुर्राहट इतनी पैनी’ थी कि अधेड़ तो अधेड़, उसके सामने मेज के इस तरफ खड़ी के चेहरे पर भी हवाईयां उड़ने लगीं। दहशतजदा तो वे चक्रेश के आगमन और उसके रिवॉल्वर की धार पर मौजूद गार्ड को देखकर ही हो चुके थे। अधेड़ कीमती सूट, शर्ट और टाई पहने हुए था। टाई पर डायमंड युक्त पिन लगा था। वहीं क्यों, उनकी तो दस अंगुलियों में छ: में हीरे, मणिक, पन्ने, नीलम और पुखराज आदि की अंगठियां भी जगमगा रही थीं। गले में सोने की चेन चेन में फिर डायमंड। आधा सिर गंजा था, आधा खिचड़ी बालों में लैस।
और लड़की ... अच्छी-खासी खूबसूरत थी वही मगर कपड़े। कपड़े तो मानो पट्ठी ने पहन ही नहीं रखे थे।
केले के तने जैसी चिकनी टांगों की जांघों तक नुमाईश करती स्कर्ट! मिनी शर्ट! ऐसी, जो गोश्त के गोलों को छुपा कम, दिखा ज्यादा रही थी।
थोबड़ों पर हैरत का सागर लिए अभी वे चक्रेश को देखने ही से फुर्सत नहीं पाए थे कि उसने हुक्म दिया “बैठ जाओ।”
दोनों खड़े रहे। जैसे हुक्म को समझे ही न हों। “सुना नहीं तुमने?” वह गुर्राया–“आई से-सिट डाऊन!”
दोनों इस तरह ‘धम्म’ से अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए जैसे बेजान पुतले गिर पड़े हों।
चक्रेश के जबड़े भिंचे हुए थे। गुलाबी होठ कसे हुए। उसी मुद्रा में उसने सारे ऑफिस का निरीक्षण किया। बहुत से शानदार ऑफिस था। एक भी ‘शोपीस’ देशी नहीं। ‘शोकेस’ में महेश घोष की हिट फिल्मों की ट्राफियां रखी थीं। किसी पर सिल्वर जुबली लिखा था, किसी पर गोल्डन जुबली तो किसी पर डायमंड जुबली।
सारे ऑफिस में टहलने के बाद नजर अधेड़ आयु के व्यक्ति के चेहरे पर स्थिर हो गई। उस चेहरे पर जिनकी आंखों के नीचे पड़े पपोटे बता रहे थे वे शुगर के मरीज हैं। चक्रेश की आंखों में मौजूद हिंसा के भावों को देखकर उनकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे अटकी रह गई थी।
बड़ी मुश्किल से अपने मुंह से इकट्ठा हो चुका थूक सटका।
चक्रेश ने पूछा–“तेरा ही नाम महेश है?”
मुंह से आवाज न निकाल सके तो गर्दन ‘हां’ में हिला दी।
“महेश घोष?” पुनः गर्दन हिली।
“मुंह से बोल!” चक्रेश ने डपटा।
“ह-हां!” उसके अंदर भरी हवा से धक्का -सा मारा।
“वही न! प्रोड्यूसर, डायरेक्टर?”
“हां!”
“ये सारी ट्राफियां तेरी हैं?”
“जी!” उन्होंने यं कहा जैसे उनके अपनी होने का बहुत दख हो!
“बड़ी हिट फिल्में बनाता है तू।”
क्या जवाब देते महेश घोष। वैसे भी बोलने में कष्ट का अनुभव हो रहा था।
“सुना है तेरी एक भी फिल्म नहीं पिटी! सबने एक से बढ़कर एक बिजनेस किया है।”
महेश घोष अब भी चुप।
“कहां से लाता है इतने हिट फार्मूले! कैसे पहचानता है जनता की नज?”
“सब भगवान की कृपा है।” वे बड़ी मुश्किल से कह सके।
“भगवान की कम, लक्ष्मी की कृपा ज्यादा लगती है तुझ पर! नाम भी लक्ष्मी फिल्म्स प्राईवेट लिमिटेड रखा है।”
“मगर ...”
“हां! हां! बोल! क्या बोलने वाला है?”
“मैं तो हर महीने खान साहब को “नजराना” पहुंचा देता हूं, फिर तुम यहां क्यों आए हो?”
“कौन खान?”
महेश घोष के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए। बोले “त-तुम खान साहब को नहीं जानते?”
“तू जानता है तो बता दे, कौन से खेत की मूली है ये?”
यह एहसास होते ही महेश घोष का हौसला कुछ बढ़ गया कि वह खान साहब का आदमी नहीं है। आवाज में थोड़ा रौब पैदा करने की कोशिश करते हुए बोले– “अगर तुम खान साहब के आदमी नहीं हो तो जो कर रहे हो, इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी।”
“रिवॉल्वर मेरे हाथ में है गधे, फिलहाल अपनी जान की परवाह कर।”
“मुझे अगर छुआ तो भी खान साहब के आदमी तुम्हें पाताल तक से निकालकर वहां भेज देंगे जहां से न आज तक कोई वापस आया है, न आएगा।”
“अबे मगर ये खान-वान है कौन?”
“बाप है इस शहर का। फिल्म इंडस्ट्री के खुदा! लगभग सभी लोग उन्हें नजराना पहुंचाते हैं! जो नहीं पहुंचाते वे देर-सवेर ऊपर पहुंच जाते हैं और।”
“और?”
“उस नजराने के एवज में उनकी गारंटी होती है देने वाले के साथ कोई दुर्घटना नहीं होगी।”
“कैसी दर्घटना?”
“जैसी तुम करना चाहते हो।”
“क्या करना चाहता हूं मैं?”
“तुम शायद लूट के इरादे से यहां घुसे हो।”
“बड़ा समझदार आदमी है यार। जब इतना ही समझदार है तो जुबान क्यों चला रहा है? जो मुझे चाहिए वो मांगने का मौका क्यों दे रहा है? उतारकर मेज पर क्यों नहीं रख देता ये अंगूठियां, पिन और चेन।”
“मैं फिर कहता हं, तुम खान साहब के कहर ...”
“अभी-अभी क्या बताया तूने, पूरी इंडस्ट्री खान को चंदा देती है?”
“हां!”
“तब तो बड़ी मोटी आसामी होगा वह।”
अब क्योंकि माहौल का तनाव कुछ कम हो गया था शायद इसलिए महेश घोष के मुंह से निकल गया–“म-मुझे तो तू कोई पागल लगता है।”
“ओए!” गर्राकर जो रिवॉल्वर चक्रेश ने उनकी तरफ घुमाया तो सकपका गए महेश घोष! चक्रेश एक-एक लफ्ज को चबाता कह रहा था–“ठीक पहचाना! मैं वाकई पागल हूं। पर क्या तू जानता है पागल कब क्या कर डाले, भगवान तक नहीं जानता!”
महेश घोष को काटो तो खून नहीं।
“जवाब दे! काफी माल होगा न खान के पास?”
“भला उसके पास क्या कमी है?”
“तुझसे भी ज्यादा?”
घोष को लगा लड़का सचमुच पागल है। और जो पागल है, वाकई उसका क्या भरोसा कब क्या कर डाले? समझ तो वह गए ही थे कि यह लड़का जो हरकत कर रहा है उसका खामियाजा अपनी जान देकर चकाना पड़ेगा। परंतु तब ... जब वे उसे यहां से विदा’ कर दें। जब तक नहीं जाता, तब तक तो खुद उन्हीं की जान खतरे में थी। उसी को बचाने की खातिर उन्होंने अपनी सभी अंगूठियां, पिन और चेन उतारकर मेज पर रख दी। बोले “तुम इन्हें ले जा सकते हो।”
“ये सब तो ले ही जाऊंगा मगर बाद में, पहले खान के बारे में बता! मुझे मोटी-मोटी आसामियों पर हाथ साफ करना है। उसके पास तुझसे कितना ज्यादा माल होगा?”
“कई गुना . . . शायद हजार गुना ज्यादा?”
“तब तो पौ बारह हो जाएंगे प्यारे। जल्दी बता रहता कहां है?”
“दबई में।”
“दुबई में?” चक्रेश चिहुंका–“मजाक करता है साले।”
“म-मजाक नहीं कर रहे, खान साहब वाकई दुबई में रहते हैं।”
“और तू ... बल्कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री उसे चंदा देती है।”
“हां।”
“कैसे?” दुबई पहुंचाते हो? “दुबई उनके आदमी पहुंचाते हैं।”
“आदमी? ... ये खान किसी औरत का नाम है क्या? द्रौपदी से ज्यादा आदमी हैं क्या उसके?”
महेश घोष का जी चाहा अपने रहे-सहे बाल भी नोंच डालें। उन्हें इस बात का पक्का यकीन होता जा रहा था कि ये लडका. जिसने अपना नाम चक्रेश बताया था, पागल है। बोले –“खान साहब औरत नहीं मर्द है। मर्द भी ऐसे जो दुबई में बैठकर यहां हुकूमत करते हैं। उनके नाम ही का इतना खौफ है कि हम जैसे लोग हर महीने उनके आदमियों को नज़राना पहुंचा देते हैं। न पहुंचाए तो वे हमें ...”
“मैं समझ गया।”
“क्या समझ गए?”
“आज से बल्कि अभी से खान का नजराना बंद। मेरा शुरू।”
महेश घोष को लड़के पर तरस आया परंतु कर क्या सकते थे। सो बोले, “सब ठीक है। ले जाओ।” सारा सामान उतारकर मेज पर रख दिया है।
“उसे क्या तेरा बाप उतरेगा?” चक्रेश ने उसकी रिस्टवॉच की तरफ इशारा किया।
रिस्टवॉच भी मेज पर रखते हुए घोष ने कहा–“कर तो रहे हो ये बेवकूफी मगर मेरा दावा है एक घंटे के अंदर ये सभी सामान तुम ही इस मेज पर वापस रख रहे होंगे या तुम्हारी लाश शहर के किसी गटर में पड़ी मिलेगी। मेरा सामान मुझ तक लौट आएगा।”
“कौन करेगा यह काम?” चक्रेश ने आंखें निकालीं–“तू?”
“मैं नहीं।” उसके तेवर देखकर मिस्टर घोष सकपकाए।
“खान साहब के आदमी करेंगे।”
“क्यों ... वे क्यों करेंगे? उनके बाप को लूट रहा हूं क्या मैं?”
“बता चुका हं-जो उन्हें नजराना देता है, वे उसके साथ वैसी कोई वारदात नहीं होने देते जैसी तुम ...”

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