133
pages
Hindi
Ebooks
2022
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Publié par
Date de parution
30 juin 2022
Nombre de lectures
4
EAN13
9789354922985
Langue
Hindi
Publié par
Date de parution
30 juin 2022
EAN13
9789354922985
Langue
Hindi
हिन्द पॉकेट बुक्स
बहू मांगे इंसाफ़
10 जून, 1955 को मेरठ में जन्मे वेद प्रकाश शर्मा हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार थे। उनके पिता पं. मिश्रीलाल शर्मा मूलत: बुलंदशहर के रहने वाले थे। वेद प्रकाश एक बहन और सात भाइयों में सबसे छोटे हैं। एक भाई और बहन को छोड़कर सबकी मृत्यु हो गई। 1962 में बड़े भाई की मौत हुई और उसी साल इतनी बारिश हुई कि किराए का मकान टूट गया। फिर एक बीमारी की वजह से पिता ने खाट पकड़ ली। घर में कोई कमाने वाला नहीं था, इसलिए सारी जिम्मेदारी मां पर आ गई। मां के संघर्ष से इन्हें लेखन की प्रेरणा मिली और फिर देखते ही देखते एक से बढ़कर एक उपन्यास लिखते चले गए।
वेद प्रकाश शर्मा के 176 उपन्यास प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त इन्होंने खिलाड़ी श्रृंखला की फिल्मों की पटकथाएं भी लिखी। वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आज तक करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास सुपर स्टार का दर्जा रखता है।
हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित
लेखक की अन्य पुस्तकें
वर्दी वाला गुण्डा सुहाग से बड़ा सुपरस्टार चक्रव्यूह पैंतरा खेल गया खेल सभी दीवाने दौलत के हत्या एक सुहागिन की कारीगर साढ़े तीन घंटे कैदी नं. 100
वेद प्रकाश शर्मा
बहू मांगे इंसाफ़
विषयक्रम
बहू मांगे इंसाफ़
फॉलो पेंगुइन
कॉपीराइट
बहू मांगे इंसाफ़
“मैं तो परेशान हो गई इस जनमजली से, कम्बख्त को हैजा खाए, कोढी हो जाए या फिर भगवान मझे ही उठा ले। कम-से-कम चौबीस घंटे इस मनहूस की सूरत तो नहीं देखनी पड़ेगी?” हाथ नचा-नचाकर कहती हुई अधेड़ आयु की सुलक्षणादेवी कमरे में दाखिल हुई।
कमरे में उसके पति हरनामदास और बड़ा पुत्र जसवंत पहले ही थे।
उन्हें देखते ही सुलक्षणादेवी एक पल के लिए ठिठकी, फिर अगले पल उसी अंदाज़ में भड़ककर चीख पड़ी—“तुम दोनों कानों में रुई डाले यहां बैठे क्या खुसर-फुसर कर रहे हो मेरा भी किसी को ख्याल है। तुममें से कोई उस कलमुंही से मेरा पीछा भी छुड़ा सकता है कि नहीं?”
“अब क्या किया कविता ने?” हरनामदास ने पूछा।
"आय ... हाय ...” सुलक्षणा हाथ नचाकर ललिता पवार की तरह उन पर झपटती हुई बोलीं-"जैसे आपको कुछ पता ही नहीं है मेरे डॉक्टर बेटे को उसने और उसके हरामखोर घरवालों ने मुफ्त में फंसा लिया और अब आप कहते हैं कि उस कलंकिनी ने किया ही क्या है ये क्या कम है कि अपने जिस लाड़ले को हमने दो लाख लगाकर डॉक्टर बनाया, उसकी शादी में दो टके भी नहीं आए। उल्टे वह कुलक्षणी मेरी छाती पर मूंग दलने आ गई है।"
"मैंने तो पहले ही कहा था मम्मी।” जसवंत कह उठा–“मेरे सास श्वसुर अमिता की शादी मनजीत से करना चाहते थे। दहेज में दो लाख भी दे रहे थे तुम ही न मानी कहने लगी कि एक ही घर में दो बहनों का बहू बनकर आना ठीक नहीं होता।”
“मेरी मति मारी गई थी। अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे मेरी, जो इनकी बातों में आई।”
“ह . . . हमारी बातों में?” हरनामदास चिहुंक से उठे।
“और नहीं तो क्या आप ही ने तो कहा था कि कुंजबिहारी अमीर है। खानदानी है अपनी बेटी को एक डॉक्टर से ब्याहने का अर्थ वह खूब जानता है। मोटा दहेज देगा। अपनी मुसीबत कुंजबिहारी ने हमारे गले में डाल दी। मेरा खून तो उसी वक्त पानी हो गया था, जब उस कलमुंहे ने आंखों में आंसू भरकर कहा कि देने के लिए मेरे पास अपनी बेटी के अलावा कुछ भी नहीं है।”
“हम क्या कर सकते थे यह बात कुंजबिहारी ने फेरों के बाद कही थी।”
“हां-हां आप कर ही क्या सकते थे। आप तो मिट्टी के माधो हैं। अब भी क्या कर सकते हैं मगर इतना तो आपको करना ही होगा कि बाजार से एक छटांक जहर ले आएं।”
“जहर . . . जहर क्यों?”
“जिसे खाकर मैं आराम से मर तो सकें।”
“तुम क्यों मरोगी मां यदि इस घर में किसी को मरना ही है तो ....”
“तुम बाप-बेटों के बस का कुछ नहीं है। बस नाम के मर्द हो यदि मैं मर्द होती, तब तुम्हें दिखाती कि ऐसी मुसीबत से पीछा कैसे छुड़ाया जाता है?”
“अचानक हरनामदास बिखरे हुए अंदाज में कह उठे–“हम तुम्हारी तरह बेवकूफ नहीं हैं सुलक्षणा, जो हर वक्त चबड़-चबड़ करके अपने जज्बात और विचारों का ढिंढोरा पीटते रहें जो दुख तुम्हें हैं, वह हमें भी है हमने भी मनजीत को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर इसलिए नहीं बनाया था कि उसकी शादी में सिर्फ पचास हजार आएं।”
"अगर यही बात है तो तुमने अब तक किया क्या है?”
“जसवंत का कहना है कि यह अपने सास-श्वसुर पर दबाव डालकर अपनी साली की शादी अब भी मनजीत से करा सकता है।”
“अब भला बारा मनजीत की शादी कैसे हो सकती है?”
हरनामदास और जसवंत की आंखें मिली। भाव ऐसे थे जैसे एक दूसरे से पूछ रहे हों कि वे सब कुछ सुलक्षणादेवी को बताएं या नहीं फिर हरनामदास सुलक्षणा की तरफ मुखातिब होकर धीरे से बोले—“हम कविता को रास्ते से हटाने की तरकीब सोच रहे थे।”
“इसमें इतना सोचने की क्या बात है?” सुलक्षणा अपने ही अंदाज में हाथ नचाती हुई कहती चली गई “खाना बनाती हुई आजकल बहुत-सी बहुएं जल जाती हैं।”
“जसवंत उस तरकीब के फेवर में नहीं है।”
“क्यों?” सुलक्षणादेवी जसवंत पर घुड़क-सी पड़ी।
जसवंत धीमे से बोला–“मैं वकील हूं मां। सारा दिन कचहरी में रहता हूं आजकल वहां बहुओं के जलने के केस ही ज्यादा आ रहे हैं। निश्चय ही किसी को जलाकर मार देना हत्या करने का एक नायाब तरीका है, क्योंकि जली हुई लाश पर हत्यारे का कोई भी निशान बाकी नहीं रहता और उसे आसानी से आत्महत्या साबित किया जा सकता है, मगर ....”
“मगर?”
“दहेज के लिए बहू को जलाकर मार देना आजकल इतनी आम घटना हो गई है कि यदि किसी बहू ने वाकई जलकर आत्महत्या की हो या दुर्भाग्य से सचमुच जलने की दुर्घटना हो गई हो, तब भी लोग
और लड़की के घरवाले यह समझते हैं कि ससुराल वालों ने बहू को जलाकर मार दिया है।”
“हम तुम्हारे इस विचार से सहमत हैं।” हरनामदास बोले।
जसवंत ने कहा—“इसलिए मेरा कहना ये है कि हम सारा काम किसी ऐसे नए तरीके से योजना बनाकर करें कि किसी को हम पर
लेशमात्र भी शक न हो। यहां तक कि कविता के घरवालों को भी यह गुमान न हो सके कि हमने कुछ किया है।”
सुलक्षणादेवी के जिस्म पर मौजूद सभी मसामों ने एक साथ ढेर सारा पसीना उगल दिया था। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं। मुखड़ा पीला पड़ गया। पीला जर्दी आंखों में खौफ के भाव थे। बड़ी मुश्किल से फंसे हुए अंदाज में कह सकी थी वे “तो क्या तुम लोग सचमुच
कविता की हत्या कर देने पर विचार कर रहे थे?”
“हां मगर तुम्हें यह अचानक क्या हो गया सुलक्षणा?”
“कुछ नहीं . . . कुछ भी तो नहीं।”
“खुद को संभालो सुलक्षणा अपने चेहरे से पसीना पोंछो। यदि तुम उसे रास्ते से हटाने के विचार मात्र से इतनी नर्वस हो रही हो तो आगे हम कर ही क्या सकेंगे!”
“नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।” सुलक्षणादेवी ने स्वयं को सामान्य दर्शाने की भरपूर किन्तु असफल कोशिश की।
हरनामदास और जसवंत ने एक-दूसरे को देखा, फिर जसवंत बोला “इस तरह नर्वस या भयभीत हो जाने से काम नहीं चलेगा मां। किसी का कत्ल करने में हिम्मत की जरूरत सबसे पहले पड़ती है।”
“मैं कहां डर रही हूं, लेकिन ...”
“लेकिन?”
“क्या इस काम में मनजीत हमारे रास्ते का रोड़ा नहीं बनेगा?”
“नहीं बनेगा।” जसवंत बोला “उससे मेरी बातें हो चुकी हैं। वह तो मन-ही-मन खुद कविता से नफरत करता है। उसे भी मेरी साली अमिता ही पसंद है।”
“मगर।”
“हम जानते हैं सुलक्षणा कि तुम क्या कहोगी?” हरनामदास बोले “यही न कि मनजीत कविता से बहुत ज्यादा प्यार करता है। जब किसी बात पर कविता से तुम्हारा झगड़ा हो जाता है, तो मनजीत कविता का ही पक्ष लेता है।”
"हां।”
“वह सब दिखावा है सुलक्षणा। मनजीत की जबरदस्त ऐक्टिंग।”
“क्या मतलब?”
“तभी तो कहते हैं कि इस घर में तुम्हारे अलावा इतना बेवकूफ कोई नहीं है कि कैंची की तरह हर समय अपनी जुबान चलाकर सारे जज्बातों को उजागर करता रहे। मनजीत जानता है कि कविता शादी से पहले गोविंद नामक एक लड़के से प्यार करती थी बस, यही उसकी नफरत का कारण है, परंतु अपने दिल में छुपी इस नफरत को उसने कभी भूल से भी कविता के सामने उजागर नहीं किया है। दूसरी तरफ वह अमिता के सपने देखा करता है।”
“क्या यह सच है?”
“बिल्कुल सच मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी योजना में वह हमारे साथ होगा।”
“तब तो...”
अभी सुलक्षणादेवी कुछ कहना ही चाहती थी कि “टर्न ... . न .... न . . . टर्न . . . न . . . टर्न . . . ट . . . टर्न।” सारे कमरे में किसी बहुत ही तेज अलार्म की आवाज गूंज गई। वे तीनों ही एकदम उछल पड़े। इस बार तीनों के चेहरे एक साथ पसीने-पसीने हो गए। दिल बहुत जोर-जोर से धड़कने लगा।
तीनों ने एकदम घूमकर दरवाज़े की तरफ देखा। अलार्म अब भी बज रहा था।
दरवाज़े पर कविता खड़ी थी। कुल बीस वर्ष की आयु। सुंदर दूध से रंग और गोल मुखड़े वाली कविता। वह गुड़िया-सी थी। जिस्म पर कीमती रेशमी साड़ी बांधे थी वह। अलार्म की आवाज उसी टेबल वाच से निकल रही थी, जो इस वक्त कविता के बाएं हाथ में थी।
कविता के गुलाब से गुलाबी एवं पंखुड़ियों से पतले होंठों पर चंचल मुस्कान थी।
वे तीनों ही कविता को वहां देखकर जड़-से हो गए। बुरी तरह डरे हुए पत्थर की शिलाओं के समान खड़े रह गए वे, जबकि उन्हें इस अवस्था में देखकर मासूम कविता जोर से खिल-खिलाकर हंस पड़ी। काफी देर तक हंसती रही वह तब तक, जब तक कि अलार्म बजता रहा। जब अलार्म बंद हो गया तो खिल-खिलाकर बोली—“डर गए न बाबूजी, मां जी भी डर गई। हा-हा-हा जरा जसवंत भइया का चेहरा तो देखो कैसा पीला पड़ गया है हा-हा-हा।”
तीनों की सांसें तक रुकी हुई थीं। खिल-खिलाकर बच्चों की तरह खुश होती हुई कविता ने कहा “अरे इस तरह क्यों डर गए जसवंत भइया। मैंने कोई बम तो नहीं छोड़ा सिर्फ अलार्म ही तो बजाया है और आप, बाबूजी आप भी ऐसे कांप रहे हैं जैसे मैंने अलार्म नहीं बल्कि नगरपालिका वालों ने खतरे का सायरन बजा दिया हो। आपको क्या हो गया मां जी आप तो इस तरह पीली पड़ गई हैं जैसे ....”
“खामोश।” अचानक ही सुलक्षणादेवी हलक फाड़कर चिल्ला उठी “तू अपनी ये बदतमीजियां नहीं छोड़ेगी कुलक्षणी इस कमरे में आने के लिए तुझसे किसने कहा था?”
“मां जी!” कविता का चांद-सा मुखड़ा मुरझा गया।
“हरामजादी, कुलटा, कलंकिनी तू इस तरह नहीं मानेगी!” चीखने के साथ ही सुलक्षणादेवी उसकी तरफ झपटी “अभी ठीक करती हूं तुझे।”
अभी वह कविता के नजदीक पहुंची ही थी कि ...
“ठहरो मम्मी!” दरवाज़े पर मनजीत नजर आया। सुलक्षणादेवी एकदम ठिठक गई। फिर अगले ही पल हाथ नचाती हुई आगबबूला होकर बोली—“तो अपनी इस बहू को तू संभालता क्यों नहीं है?”
“ओफ्फो मम्मी तुम भी।” मनजीत जैसे दुविधा में फंस गया “आखिर तुम समझती क्यों नहीं चुपचाप बैठे किसी भी व्यक्ति को अचानक ही अलार्म बजाकर चौंका देना कविता का खेल है। वह तुम सबसे खेलना चाहती है और तुम ....”
“क्या ये बच्ची है, जो इस तरह के खेल ....”
“ओफ्फो मम्मी तुम तो जानती हो कि कविता को यह आदत बचपन से ही है। जब मैंने इस बारे में इसके पिता से कहा तो वे ठहाका मारकर हंस पड़े। कहने लगे कि कविता बचपन से ही इस किस्म की शरारतें किया करती है किसी का गुमसुम बैठे रहना या किन्हीं भी चंद आदमियों का आपस में खुसर-पुसर करते रहना इसे बिल्कुल पसंद नहीं है। कविता चाहती है कि सभी मिल-जुलकर हंसें बोलें, खेलें-कूदें बस इसीलिए यह ...”
“इससे कह दे कि इसकी ये बदतमीजयां इसके बाप के घर में ही चल गई होंगी यहां यह बहू है बहू की तरह रहे। इसका यूं सारे घर में उछल-कूद करते रहना हमें बिल्कुल पसंद नहीं है।”
“इसमें बुराई क्या है मम्मी कविता चाहती है कि घर में सभी हंसते खेलते रहें।”
"हंसने-खेलने के काम न इसने किए हैं, न इसके बाप ने!” आदत के मुताबिक हाथ नचाती हुई सुलक्षणादेवी कहती ही चली गई “यदि वह सचमुच इस घर में सबको हंसते-खेलते देखना चाहती है तो अपने बाप से एक कार ....”
“सुलक्षणा!'' हरनामदास चीखकर आगे बढ़े, बोले- “तुमसे कितनी बार कहा है कि हमारी बहू से तुम ये उल्टी-सीधी बात न किया करो क्या दहेज ही सब कुछ है। एक हंसती-खेलती सुंदर और सभ्य बहू कुछ भी नहीं?”