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With a new prologue Splendid . . . anyone who wants to understand Indian politics or think they do should read it -Indian Express Delightfully written . . . he has a sharp eye for details, especially the actions of political leaders - India Today Captures the drama of 2014 and the men who powered it -Open Holds you to your seat, often on the edge . . . A procession of India s colourful political characters Lalu Yadav, Amit Shah, Rahul Gandhi, Narendra Modi and many more come intimately close through the author s accounts -The Hindu Candid and forthright . . . and deliciously indiscreet -Hindustan Times A racy narrative that goes beyond recording immediate political history -Tehelka The 2014 Indian general elections has been regarded as the most important elections in Indian history since 1977. It saw the decimation of the ruling Congress party, a spectacular victory for the BJP and a new style of campaigning that broke every rule in the political game. But how and why? In his riveting book, Rajdeep Sardesai tracks the story of this pivotal election through all the key players and the big news stories. Beginning with 2012, when Narendra Modi won the state elections in Gujarat for a third time but set his sights on a bigger prize, to the scandals that crippled Manmohan Singh and UPA-II, and moving to the back-room strategies of Team Modi, the extraordinary missteps of Rahul Gandhi and the political dramas of election year, he draws a panoramic picture of the year that changed India. Note: This book is in the Hindi language and has been made available for the Kindle, Kindle Fire HD, Kindle Paperwhite, iPhone and iPad, and for iOS, Windows Phone and Android devices.
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Date de parution

01 juin 2015

EAN13

9789352140688

Langue

English

राजदीप सरदेसाई


2014 चुनाव जिसने भारत को बदल दिया
अनुवाद अनूप कुमार भटनागर
अनुक्रमु
लेखक के बारे में
समर्पित
प्राक्कथन
1. नरेंद्र भाई, गुजरात से आया व्यक्ति
2. खानदानी विरासत का कैदी
3. आईसीयू में सरकार
4. मैं प्रधानमंत्राी बनना चाहता हूं
5. केंद्रीय स्थल के लिए संघर्ष
6. राजा, रानी और तीसरा पहलू
7. मल्टीमीडिया ही संदेश है
8. बनना एक लहर का
9. महासमर: अमेठी और वाराणसी
10. यही है सुनामी!
उपसंहार
परिशिष्ट 1
परिशिष्ट 2
परिशिष्ट 3
आभार
पेंगुइन को फॉलो करें
सर्वाधिकार
पेंगुइन बुक्स
2014 चुनाव जिसने भारत को बदल दिया
राजदीप सरदेसाई देश के सबसे अधिक मान्यता प्राप्त और सम्मानित पत्रकारोंमें हैं। 1988 में पत्रकारिता का जीवन शुरू करने वाले राजदीप सरदेसाई टेलीविज़नऔर प्रिंट मीडिया में एक जानेमाने एंकर, संपादक और स्तंभकार हैं। इस समयवह इंडिया टुडे समूह के सलाहकार संपादक हैं। एडीटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्षसरदेसाई को 2008 मे पद्मश्री सहित अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारोंसे सम्मानित किया जा चुका है। वह दिल्ली में अपनी पत्नी सागरिका और बच्चेईशान तथा तारिणी और अपने पालतू कुत्ते नेमो के साथ रहते हैं। यह उनकीपहली पुस्तक है।
अनूप कुमार भटनागर एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। फिलहाल वे पीटीआई-भाषा के साथसंपादकीय-कानूनी सलाहकार के बतौर काम कर रहे हैं। इसके पहले वे दैनिकजागरण, पीटीआई-भाषा, हिंदुस्तान और नई दुनिया में काम कर चुके हैं।
सागरिका को उम्मीद बनाए रखने के लिए
प्राक्कथन
गर्मी और पसीने से तरबतर करने वाले मौसम में वाराणसी में लोक सभा चुनावप्रचार ने भारत में चुनाव के प्रति शाश्वत आकर्षण के बारे में मेरी यादें एक बारफिर ताज़ा कर दीं। शहर के एक मशहूर पहलवान लस्सी की दुकान पर शीतलपेय के लिए रुकने पर हमने यूंही इसके मालिक से पूछ लिया कि वह किसेवोट देने जा रहे हैं तो अपनी रोबीली मूंछें मरोड़ते हुए पहलवान चाचा ने हमेंदेखा और कहा: जो बाबा जगन्नाथ और दिल कहे। मैंने उन्हें कुछ और कुरेदनेकी कोशिश की: नरेंद्र मोदी या अरविंद केजरीवाल? सुस्वादिष्ट लस्सी पर प्रेमसे रबड़ी डालते हुए वह तपाक से बोले: ‘देखिए सर, वोट हमारा है, आपको क्योंबताएं?’
पिछले पांच दशकों से भी अधिक समय के दौरान पहलवान चाचा सरीखेकरोड़ों भारतीय उम्मीदों और संकल्प के साथ देश भर में अपने मताधिकार काइस्तेमाल करने के लिए लाइन में खड़े होते हैं। यही वह दिन है जब ‘खास आदमीऔर आम आदमी’ ‘लाल बत्ती वाली गाड़ी और ऑटो रिक्शा’ ‘फोर्ब्स के अरबपतिऔर बीपीएल परिवार’ के बीच वास्तव में अंतर खत्म हो जाता है। हम कतारमें खड़े होकर अपनी उंगलियों पर चुनाव की स्याही लगने का इंतज़ार करते हैं।जब कोई कतार को तोड़ने की कोशिश करता है तो, जैसा अभिनेता सांसद चिरंजीवीने इस बार हैदराबाद में किया, आपमें से किसी को उनसे यह कहने का साहसभी आ जाता है कि जाकर पीछे कतार में खड़े हों।
यह सच्चाई है कि भारत में उच्च आमदनी वाला वर्ग, समाज के निर्धनऔर गरीब तबके की तुलना में कम वोट करता है: वंचित तबके के लिए समानता की लालसा हमेशा उनकी प्रेरणा का स्रोत रहती है। हमारे घर में दो दशकों सेकाम कर रही उत्तरी बंगाल की जॉर्जीना ने अपने जीवन में कभी भी वोट नहींडाला और दिल्ली विधान सभा चुनाव में मतदान के लिए भी उनके पास फोटोपहचान पत्र नहीं था। जब हमने 2014 के चुनावों से पहले अंततः उनके लिएइसकी व्यवस्था कर दी तो उनकी खुशी देखते ही बनती थी। मतदान के दिनवह अपनी मुस्कान छिपा ही नहीं पा रही थी, हर किसी को अपनी उंगली दिखारही थी जो उसे देखने की ज़हमत करे। उसकी आंखों की चमक से उसकेसशक्तीकरण का अहसास झलक रहा था। उसने विजयीभाव के साथ मुझे बताया,‘सर, हमने भी वोट डाला।’
इंडिया आफ्टर गांधी में इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 1952में संपन्न पहला चुनाव हमारे संविधान निर्माताओं के लिए ‘भरोसे और आत्मविश्वासकी पहचान था। प्रथम निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ने इसे ‘मानव इतिहासमें लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग’ बताया था। चेन्नई के एक संपादक ने कहा:बहुत बड़ी जनसंख्या पहली बार अपने वोट का इस्तेमाल करेगी; अधिकांश कोमालूम ही नहीं था कि वोट क्या है, उन्हें क्यों वोट देना चाहिए और किसकेलिए वोट देना चाहिए; इसमें कोई अचरज नहीं है कि इस समूचे अभियान कोइतिहास के सबसे बड़े जुए के रूप में लिया गया।
आज 62 साल बाद, हम गर्व से कह सकते हैं कि भरोसे की जीत हुई;प्रयोग सफल हुआ है; जुआ सही था। 2014 के चुनाव, एक तरह से, 1952में शुरू हुई प्रक्रिया की एक बार फिर पुष्टि करती थी। 55 करोड़ से अधिकभारतीयों ने इन चुनावों में वोट किया जो दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र संयुक्तअमेरिका की पूरी आबादी से भी ज़्यादा था। मैं कभी नहीं भूलूंगा जो मेरे एकपाकिस्तानी मित्र ने कहाः ‘पाकिस्तान में, हम जब सरकार बदलना चाहते हैं,हम सेना ले आते हैं; भारत में, आप सिर्फ मतपेटी का इस्तेमाल करते हैं।’ निश्चितही, हम यह करते हैं।
हमारे देश में संपन्न हुए सभी 16 लोकसभा चुनावों का विशेष महत्व था,हालांकि इसमें से कुछ अन्य चुनावों से अधिक महत्वपूर्ण थे। निश्चित ही पहलाचुनाव एक बड़ी उपलब्धि था– यह अंधेरे में देश की एक लंबी कूद थी जिसकेबारे में पश्चिमी टीकाकारों का मानना था कि यह तेज़ी से विघटित हो जाएगा।1977 का चुनाव भी ऐतिहासिक था–आपातकाल के बाद इसने लोकतंत्र में जनताका विश्वास बहाल किया और इसने पुरज़ोर ताकत से उभर रही तानाशाही को नकारदिया था। उस समय मैं सिर्फ 12 साल का ही था, लेकिन मुझे बड़े अक्षरों की हेडलाइनें अभी भी याद हैं: ‘भारत की जनता ने इंदिरा गांधी को हरा दिया।’ मुझे पूरा विश्वासहै कि एक पत्रकार के नज़रिए से यह चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण रहा होगा। इंदिरागांधी की पराजय के बाद राज नारायण के व्यक्तित्व की कल्पना कीजिए।
मैं 2014 के चुनाव को 1952 और 1977 के समकक्ष ही रखना चाहूंगा।पत्रकार के रूप में 1989 से भारतीय चुनावों को बहुत ही नज़दीक से देखनेका मुझे मौका मिला है। मेरा मानना है कि 16वीं लोकसभा का चुनाव भारतीयराजनीति में तकनीकी दृष्टि से बहुत बड़ें बदलाव का प्रतीक थी। इस चुनावके लिए मैंने बहुत सोच समझ कर राजनीतिक सुनामी–या ‘सुनमो’–शब्द काप्रयोग किया था। इस शब्द का प्रयोग भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार अमित शाहने पहली बार यह बताने के लिए किया था कि यह चुनावी ‘लहर’ से भी ज्य़ादाहै। यह इससे भी बड़ी और बहुत बड़ी है।
भारत में सुनामी शब्द दिसंबर 2004 में देश के दक्षिणी तट पर आईविनाशकारी विभीषिका से जुड़ा हुआ है जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुईऔर संपत्ति का विनाश हुआ था। इस चुनाव में लोगों की जान तो नहीं गई लेकिनइसने निश्चित ही देश में राजनीति के बारे में लोगों की कुछ पुरानी मान्यताओंको तार तार कर दिया। एक तरह से यह लंबे समय से चल आ रहे पारंपरिकमतदान के तरीके का खात्मा था जिसने ग्रामीण-शहरी के बीच का पारंपरिक अंतर,क्षेत्रीय वफादारियों, परिवारों के प्रति निष्ठा और संरक्षण वाले शासन को नकारदिया था। हो सकता है कि इसने दशकों से भारतीय राजनीति में वर्चस्व बनाएरखने वाली नेहरू युग की आम सहमति को भी खत्म कर दिया हो। चुनाव नतीजेके बाद गुहा ने एक स्तंभ में लिखा थाः मोती लाल नेहरू और उनके वंशजोंद्वारा स्थापित प्रसिद्ध संरचना अब खंडहर का ढेर बन गई है। इसने सामाजिकसमूहों द्वारा एक पुराने ढर्रे के आधार पर कांग्रेस, भाजपा और जाति पद आधारितदलों राजनीति को नकार दिया। भारत की राजनीति की ज़मीन हिल गई, इसनेअपने रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं को दरकिनार कर दिया और भारतीयचुनाव की धुरी को पहचान वाली राजनीति से हटाकर आकांक्षाओं वाली राजनीतिमें पहुंचा दिया। अब एक नया पहलु जुड़ गया है, जो जाति और समुदाय केवोट बैंक की संकीर्ण अपील से आगे अतिरिक्त महत्वपूर्ण समर्थन देता है।
2014 के चुनाव ने नतीजों, प्रक्रियाओं और व्यक्तित्वों में बदलाव देखा।भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने वाली (1977 मेंजनता पार्टी कई दलों का गठबंधन थी) पहली गैर कांग्रेसी पार्टी बन गई। जनसंघके रूप में अपने पहले अवतार में इसने 1952 के चुनाव में सिर्फ तीन सीटें जीती थीं और 3.1 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। लेकिन अब, इसने 282 सीटेंजीतीं और राष्ट्रीय स्तर पर 31 प्रतिशत मत प्राप्त किए– जब आप भाजपा केप्रभाव वाले इलाकों में 350 से कम जीतने वाली सीटों के बारे में सोचते हैं तोऐसी स्थिति में यह चमत्कृत करने वाला आंकड़ा है। कमल वाकई खिला है औरये बाह्मण-बनिया पार्टी भी अपनी पहचान से बहुत आगे निकल आई है।
छह राज्यों में भाजपा ने सारी सीटों पर विजय प्राप्त की। उत्तर और पश्चिमीभारत में उसका प्रदर्शन 80 प्रतिशत से अधिक था और उसने इस इलाके मेंहर उन पांच सीटों में से चार पर जीत हासिल की जिस पर उसने चुनाव लड़ाथा। उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जिनके बारे में हमारा मानना हैकि वे जातीय गणित पर आधारित हैं लेकिन भाजपा को यहां भी अपेक्षा से अधिकअप्रत्याशित नतीजे मिले। मुस्लिम समुदाय के इतर लगभग सभी समुदायों ने भाजपाके लिए बढ़-चढ़ कर वोट किया। चुनाव में सिर्फ ऊंची जातियां ही एकजुट नहींहुईं बल्कि ओबीसी, दलित और आदिवासियों ने भी बड़ी संख्या में भाजपा कोवोट दिया। भाजपा कम से कम 2014 में राजनीतिक क्षितिज पर एक नए इंद्रधनुषीगठबंधन के रूप में नज़र आई।
इसके विपरीत, 129 साल पुरानी कांग्रेस, जिसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलनसे जुड़ी थीं, सिमट कर रह गईं। सत्ता पर उसका एकाधिकार पहले जैसा नहींरहा। यहां तक कि 1977 के चुनाव में, पार्टी कम से कम विंध्याचल के दक्षिणमें अपनी लाज बचाने में सफल रही थी। इस बार, सिर्फ केरल ही ऐसा राज्यहै जहां कांग्रेस को दस से अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई। चुनाव में इसकीसीटें 44 तक ही रह गई और वोट प्रतिशत भी सिर्फ 19.3 रह गया। पहलीबार कांग्रेस का वोट प्रतिशत 20 से कम गया। कांग्रेस का प्रदर्शन मज़ाक काविषय बन गया। जून में विमान से दिल्ली लौटते वक्त एक सहयात्री ने टिप्पणीकी, ‘ऐसा लगता है कि जल्द ही देश का तापमान भी लोकसभा में कांग्रेस कोमिली सीटों से अधिक होगा।‘
परंतु चुनाव के अंतिम नतीजों ने ही 2014 के चुनाव को इतना अधिकअलग नहीं बनाया बल्कि चुनाव ने एक ऐसी सिलसिलेवार प्रक्रिया शुरू की है–प्रत्यक्ष और परोक्ष जो भविष्य में लड़ें जाने वाले चुनावों के तरीकों को ही बदलकर रख सकती है। यह सही है कि पहले कभी भारत के चुनाव में इतना अधिकधन खर्च नहीं किया गया। महंगाई आलू की कीमतों को ही प्रभावित नहीं करती,इससे चुनाव खर्च भी प्रभावित होता है। कॉर्पोरेट जगत से मिल रहे बेहिचकसमर्थन की वजह से भाजपा ने खर्च के मामले में बड़ी आसानी से अपने विरोधियों को पछाड़ दिया था लेकिन चिंता की बात अब यह है कि आने वाले लोकसभामें प्रत्येक सदस्य के लिए चुनाव जीतने के लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकताहोगी क्योंकि इसमें दान में दिए गए प्रत्येक रुपए को चुनाव के बाद भुनाने कीआवश्यकता होगी।
आंध्र प्रदेश में एक प्रत्याशी ने मुझसे स्वीकार किया कि उसे ‘सिर्फ चुनावमैदान में टिके रहने के लिए 15 से 20 करोड़ रुपए चाहिए।’ चुनाव में धनका इतने बड़ें पैमाने पर प्रवाह यही संकेत देता है कि यदि आप करोड़पति नहींहैं तो अब भारत में चुनाव लड़ना आपके लिए पूरी तरह असंभव है। सरकारके खर्च पर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव अब वज़नदार हो गया है।
चुनाव में बेधड़क धनबल का इस्तेमाल लोकतंत्र को पंगु बनाता है औरमतदाताओं के सामने विकल्प सीमित कर देता है। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक भारतीयमतदाता इसकी शिकायत कर रहा है लेकिन वस्तुस्थिति यही है। मुंबई में, मैंसासून गोदी में एक मछुआरन से मिला जिसने बताया कि कांग्रेस ने उसे वोटदेने के लिए एक हज़ार रुपए और भाजपा के प्रत्याशी ने 1500 रुपए देने काप्रलोभन दिया। उसने हंसते हुए कहा, ‘मैं दोनों से पैसा लूंगी और फिर वोट किसेदेना है, इस बारे में फैसला करूंगी।’
पैसा चुनाव के लिए खतरा है, लेकिन प्रौद्योगिकी नहीं। प्रथम चुनाव में,मतपत्रों से भरी

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